
जनक्रांति ब्यूरो)
हरिद्वार। गढरत्न लोक संस्कृति के संवाहक श्री नरेन्द्र सिंह नेगी जी का राज्य आन्दोलन गाया गया जागरण गीत “चला जागा उत्तराखण्ड्यों सौं उठाणौं बकत ऐगि” की धुन पर एक होकर असंख्य आन्दोलनकारियों और शहीदों के बलिदान के बाद बना राज्य उत्तराखंड 25 वर्षों में पलायन की चपेट में आयेगा शायद ही किसी ने सोचा होगा।…..
पहाड़’ शब्द का अर्थ अपने में बहुत कुछ समेटे हुए है। पहाड़ का मतलब कठिन,बहुत मुश्किल तो कैसे उम्मीद की जा सकती है कि पहाड़ की ज़िन्दगी आसान होगी? विकास के दौर में ये मुश्किलें तब और बढ़ जाती हैं जब संसाधन कम हो जाते हैं और आवश्यकता बढ़ जाती हैं। राज्य बनने के बाद उत्तराखंड पलायन की मुख्य समस्या से ग्रसित हैं,लेकिन यह एक यक्ष प्रश्न है कि इस समस्या से निबटने के लिए कौन-कौन से प्रयास राज्य बनने के बाद पिछले 25 वर्षों में हुए.?
आज से तकरीबन 10 वर्ष पहले एक समाचार पत्र द्वारा किए गये सर्वेक्षण में पहाड़ सैकड़ों गांवो में ताले लगे हुए हैं,हज़ारों मकान खंडहरों में तब्दील हो गये हैं। निश्चित रूप मेंं हरिद्वार से लक्सर के माननीय विधायक मौ शहजाद के उत्तराखंड विधानसभा के विशेष सत्र में महामहिम राष्ट्रपति महोदय के अभिभाषण पर अपने धन्यवाद प्रस्ताव पर अपने वक्तव्य में ये सही कहा कि जब पहाड़ के विकास के लिए पृथक पर्वतीय राज्य का गठन हुआ तो सरकारें क्यों नहीं उन क्षेत्रों का विकास करती क्यों संसाधनों के अभाव में पहाड़ी राज्य को बोझ
पहाड़ों से हटकर देहरादून,हरिद्वार, ऋषिकेश,हल्द्वानी,नैनीताल,काशीपुर,रुद्रपुर जैसे शहरी पर बढ़ रहा है। 9 नबम्बर 2000 को उत्तराखंड बना और राज्य बनने के बाद सारे मुद्दों को पीछे करते हुए पलायन ने अपनी पकड़ और जकड़ दोनों ही अच्छी खासी बना ली।
मैंने कभी पलायन को मुख्य मुद्दा नहीं माना, पलायन वजह नहीं बल्कि विकास की दौड़ में संशाधनों का अभाव के कारण प्रभाव है। उदाहरण के लिए अगर एक खेत में अच्छी मिट्टी,खाद,पानी सही मात्रा न हो,बाहर का तापमान अनियंत्रित हो और वहां पर एक अच्छी फसल उगा दी जाए तो क्या वहां पर फसल होगी? कारण खाद,मिट्टी,तापमान, पानी होते हुए भी उस का प्रभाव फसल के अनुकूल न होना। यही बात पलायन पर भी लागू होती है। किसी एक जगह पर सही से पानी,बिजली,सड़क,शिक्षा,खेती,स्वास्थ्य, रोज़गार के लिए संसाधन नहीं होंगे तो नतीजा पलायन के रूप में ही बाहर आएगा। हमें पलायन रोकने के लिए कारणों का निवारण करना होगा। विधायक मौ शहजाद के अनुसार पहाड़ से प्रतिनिधियों का पहाड़ी विधान सभाओं को आवागमन का साधन बनाना अगर पहाड़ी जनप्रतिनिधि अपनी विधानसभा के क्षेत्र को अपनी आवश्यकताओं के अनुसार आवश्यकताओं के अनुसार प्रभाव युक्त बनायेंगे तो पहाड़ों से पलायन खुदबखुद रुक जाएगा।
अगर हम उत्तराखंड में उच्च शिक्षा की बात करें तो देहरादून,हरिद्वार,ऋषिकेश,हल्द्वानी, नैनीताल के अलावा उंगलियों में गिनने लायक अच्छे शिक्षण संस्थान हैं जो हैं राज्य निर्माण की रजत जयंती पर वहां की शिक्षा का स्तर पूरी तरह से शिक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाने के लिए काफी है। शिक्षा से ही मुद्दों की बात करें तो हमारे पहाड़ में प्रारम्भ से ही शिक्षकों का अभाव बना रहा। जिस कारण पहाड़ के विद्यार्थियों में शिक्षा के क्षेत्र में गुणात्मकता का अभाव रहा। सड़क से कई किलोमीटर दूर पहाड़ की चोटियों में स्थित राजकीय इंटर कॉलेजों ने नकल से आये 80%, 90% की जो योग्यता धारी बेरोजगारों की फसल पैदा हुई है,वो शहर के बच्चों से कॉम्पीटिशन करने में धराशाई हो जाते हैं। तो जैसे ही कोई परिवार थोड़ा ठीक-ठाक आर्थिक स्थिति में पहुंचता है। परिवार चाहे खुद शहर का रुख न करें परन्तु वो अपने बच्चों को शिक्षा आदि मूलभूत सुविधाओं के लिए अपने बच्चों को शहरों में पढ़ाई के लिए भेज देता है। उच्च शिक्षा की बात करें तो देहरादून,हरिद्वार शहरी जिलों के अलावा उंगलियों में गिनने लायक ही अच्छे शिक्षण संस्थान हैं। जो हैं भी वहां की शिक्षा का स्तर पूरी तरह से शिक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाने के लिए काफी है।
कृषि योग्य भूमि का कम होना और साथ में हमारे परम्परागत अनाज को उसका उचित स्थान न मिलना भी कृषकों की खेती-किसानी के प्रति अरुचि पैदा होना भी पलायन का एक महत्वपूर्ण कारण है। राज्य सरकारों द्वारा उत्तराखंड के उन किसानों पर कभी किसी का ध्यान ही नहीं जाता जो कभी जौ,बाजरा,कोदा,झंगोरा उगाते थे और उस खेती का सही लागत मूल्य न मिलने के कारण आज उन्होंने उन्नत खेती करना ही छोड़ दिया है। सरकारों को यहां के किसानों को परम्परागत अनाज का सही लागत मूल्य जारी कर खेती करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि पलायन रोकने के लिए एक कारगर उपाय किया जा सके ।
कोदा-जंगोरा खाकर पहाड़ में पले-बढ़े बच्चे स्वरोज़गार के बारे में ज़्यादा नहीं सोच पाते और सोचें भी कैसे–? कभी उन्हें इस बात के लिए सरकार द्वारा सही प्लेटफ़ॉर्म ही नहीं दिया गया। विषम भू-भाग की दिक्कतों के चलते पहाड़ों में भारी उद्योग नहीं लग सकते पर लघु उद्योगों के लिए पहाड़ जो कि एक अच्छा प्लेटफ़ॉर्म हो सकते थे, वो सरकार की उदासीनता की भेंट चढ़ गये। सरकार वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली स्वरोज़गार योजना के साथ ड्राईवर बनने में ही साथ दे पाती है, इससे ज़्यादा कुछ नहीं?
स्वास्थ्य की समस्या से हमारे पहाड़ जूझ रहे हैं। डॉक्टर तो हैं नहीं साथ ही पैरामेडिकल और फार्मेसी स्टाफ की भी बेहद कमी है। 108 एम्बुलेंस हमारे लिए जीवनदायनी ज़रूर साबित हुई परन्तु सरकार का पी.पी.पी. मॉडल का स्वास्थ्य सेवाओं की मूलभूत सुविधाओं का अभाव का खेल बहुत से सवाल भी छोड़ता है। प्राथमिक उपचार की सुविधाओं की कमी सरकार को दिखाने के लिए काफी है। किसी भी केस के लिए हमें सीधे देहरादून दौड़ना पड़ता है, इस से बढ़ कर राज्य की रजत जयंती वर्ष में पहाड़ का दुर्भाग्य क्या होगा?
“देव भूमि का पहाड़ को तमगा हासिल है, गंगोत्री, यमनोत्री, बद्रीनाथ,केदारनाथ,हेमकुंड साहिब, बूढ़ा केदार, नानकमत्ता जैसे अपने तीर्थ स्थलों पर हम गर्व करते हैं पर यह पूरा सिस्टम इतना अव्यवस्थित है कि हम इससे अच्छा रोज़गार नहीं जुटा पा रहे हैं।“
पर्यटन की दृष्टि से हम बहुत निम्न स्तर के सेवा देने वालों में गिने जाते हैं। कई लोग इस सोच से घिरे दिखते हैं कि ये पर्यटक आज आया है इसे जितना लूटना हैं आज ही लूटकर देख लेते हैं क्यूंकि कल किसने देखा है। ठोस योजनाओं की कमी के चलते हम तो इस बात का भी ढंग से काउंट नहीं रख पाते कि हमारे यहां कितने पर्यटक आये,बाकि की बातें तो फिर बहुत दूर की हैं।
कृषि प्रधान देश होने के नाते कई सीखें विरासत में हमें मिली हैं,पर हम उनका सही से प्रयोग नहीं कर पा रहे हैं। हमारे खेत छोटे हैं,बिखरे पड़े हैं और जहां गांवों में पलायन हो चुका है वहां खेत बंजर और खाली पड़े हैं। सरकार चाहे तो एक सुदृढ़ योजना बना कर उस बंजर या खाली पड़ी कृषि योग्य भूमि पर वैज्ञानिक तरीकों से कृषि करवा सकती है। यह कई स्तर पर रोज़गार बढ़ाने का प्रयास हो सकता है। पाली हाउस तकनीकों से ज़्यादा से ज़्यादा सब्ज़ियां उगाने पर ध्यान दिया जा सकता है। हिमाचल जैसा पहाड़ी राज्य हमारे लिए एक उदाहरण है, कि कैसे वहां कृषि को फलों की तरफ मोड़ कर समृद्धि हासिल की गयी।
पलायन को मात देनी है तो इसके कुछ चरण हो सकतें हैं और इसके पहले चरण में उन लोगों को रोकना होगा जो कम पढ़े-लिखें हैं। अगर इनके रोज़गार के साधन यहीं पैदा हो जाएं तो अगले चरण में हम तकनीकी कौशल संपन्न लोगों को रोक सकते हैं। काफी बातों के लिए हमने सरकार की ज़िम्मेदारी तय कर दी पर अपने गिरेबान में झांक कर देखिये कि हमने कैसा सामजिक ताना-बाना बनाया था? जातिगत आधार हो या देशी-पहाड़ी की लड़ाई, इसमें जीता चाहे कोई भी हो पर हारा सिर्फ पहाड़ ही है। उत्तराखंड बनने के बाद राज्य वासी निम्न स्तरीय राजनीति के शिकार हुए हैं।
गढरत्न,गढसिरोमणी लोग संस्कृति के संवाहक श्री नरेन्द्र सिंह नेगी जी के गीत “चला जागा उत्तराखण्ड्यों सौं उठाणौं बकत ऐगि” की धुन पर एक होकर कई आन्दोलन कारियों और शहीदों के बलिदान के बाद बना यह राज्य की रजत जयंती वर्ष में इतनी जल्दी पलायन की चपेट में आ जायेगा किसी को अंदाज़ा नहीं था। इसके लिए हम किसी और को दोष नहीं दे सकते,हमने ही राज्य की मांग के साथ अपनी बर्बादी कि दास्तान खुद लिखी है। जल्द ही अगर हमने अपनी मूलभूत सुविधाओं, बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं तथा उनकी गुणवत्ता की उचित निगरानी,लघु एवं कुटीर उद्योगों का विकास; बिजली, पानी सड़क और पर्यटन पर ध्यान नहीं दिया तो उत्तराखंड के तबाह होने की कहानी भी हम ही लिखेंगे।
